हरदा जिले में महिला जनप्रतिनिधियों की जगह पतिदेव कर रहे काम — लोकतंत्र और महिला सशक्तिकरण पर सवाल

हरदा जिले में महिला जनप्रतिनिधियों की जगह पतिदेव कर रहे काम — लोकतंत्र और महिला सशक्तिकरण पर सवाल

शेख अफरोज हरदा। प्रदेश में महिला सशक्तिकरण और पंचायती राज की सफलता की बातें खूब होती हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही तस्वीर पेश करती है। हरदा जिले की कई पंचायतों और निकायों में निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों की जगह उनके पति यानी पतिदेव ही सारा कामकाज संभाल रहे हैं। चाहे बैठक में बोलना हो, पत्रकारों को जानकारी देना हो या फिर किसी विषय पर अभिमत व्यक्त करना—जवाब महिला प्रतिनिधि की ओर से नहीं बल्कि उनके पति ही देते हैं। यह स्थिति न केवल लोकतंत्र के मूल्यों के साथ मज़ाक है, बल्कि महिलाओं को सरकार द्वारा दिए गए अधिकारों का भी सीधा-सीधा हनन है।

ग्रामीण इलाकों से लेकर नगर परिषदों तक कई उदाहरण देखने को मिल रहे हैं, जहां महिला प्रतिनिधियों की मौजूदगी केवल नाममात्र की रह गई है। सूत्रों का कहना है कि कुछ स्थानों पर तो स्थिति इतनी गंभीर है कि महिला प्रतिनिधियों के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर तक उनके पतिदेव ही करते हैं। बैठक में पारित प्रस्ताव, ठेके या योजनाओं की स्वीकृति में भी महिलाओं की भूमिका नगण्य है।

पत्रकारों को जवाब भी पति ही देते हैं

जिले के कई पत्रकारों ने शिकायत की है कि जब वे किसी विषय पर जनप्रतिनिधियों का पक्ष जानना चाहते हैं, तो महिला प्रतिनिधि की बजाय उनका पति सामने आ जाता है। कई बार तो पत्रकारों को साफ कहा जाता है—“मैडम से क्या पूछना, हम ही जवाब दे देते हैं।” यह स्थिति लोकतांत्रिक व्यवस्था की गंभीरता को कमजोर करती है और महिला नेतृत्व की पहचान को खोखला बना देती है।

अधिकारों का हनन और कानून का उल्लंघन

सरकार ने पंचायतों और नगरीय निकायों में महिलाओं को 50% तक आरक्षण देकर उन्हें मजबूत बनाने का प्रयास किया है। लेकिन यदि असल काम उनके पति ही करेंगे, तो यह आरक्षण व्यवस्था निरर्थक हो जाएगी। कानूनन भी यह स्थिति प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व के दायरे में आती है, जो पूरी तरह गलत है। पंचायत राज अधिनियम और स्थानीय निकाय अधिनियम के अनुसार निर्वाचित जनप्रतिनिधि को स्वयं दायित्व निभाना अनिवार्य है। ऐसे में यदि पतिदेव सारा कार्यभार देख रहे हैं, तो यह न केवल नियमों का उल्लंघन है बल्कि लोकतंत्र के मूल स्वरूप के भी खिलाफ है।

ग्रामीणों की नाराज़गी

ग्रामवासियों का कहना है कि महिला प्रतिनिधियों को आगे लाने के बजाय यदि उनके पति ही निर्णय करेंगे, तो यह चुनाव की भावना के साथ छल है। ग्रामीण बताते हैं कि जब वे किसी समस्या के समाधान के लिए सरपंच या पार्षद के पास जाते हैं, तो महिला प्रतिनिधि उनकी बात तक नहीं सुनतीं और पूरा जवाब पति ही देते हैं। इससे महिलाओं का आत्मविश्वास घटता है और समाज में उनका सम्मान भी प्रभावित होता है।

कार्रवाई की मांग

सामाजिक कार्यकर्ताओं और महिला संगठनों ने इस पूरे मामले को गंभीर बताते हुए प्रशासन से सख्त कार्रवाई की मांग की है। उनका कहना है कि पतिदेव की भूमिका केवल सहयोगी तक सीमित होनी चाहिए, न कि निर्णायक की। यदि कोई महिला प्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारी निभाने में असमर्थ है, तो प्रशासन को प्रशिक्षण और मार्गदर्शन देना चाहिए, लेकिन पतियों को उनकी जगह काम करने देना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है।

महिला सशक्तिकरण पर सवाल

यह स्थिति उस महिला सशक्तिकरण अभियान पर भी सवाल उठाती है, जिस पर सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रही है। यदि निर्वाचित महिला प्रतिनिधि केवल नाम की हैं और असली सत्ता उनके पति के हाथ में है, तो यह प्रणाली केवल कागजों तक सीमित रह जाएगी।

प्रशासन की जिम्मेदारी

विशेषज्ञों का मानना है कि प्रशासन को इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए सख्त दिशा-निर्देश लागू करने होंगे। पंचायत बैठकों और परिषद की कार्यवाही में महिला प्रतिनिधि की व्यक्तिगत उपस्थिति और हस्ताक्षर अनिवार्य किए जाने चाहिए। साथ ही, यदि किसी बैठक या निर्णय में पतिदेव के हस्तक्षेप की शिकायत मिलती है, तो तत्काल जांच कर दंडात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए।हरदा जिले में महिला जनप्रतिनिधियों की जगह पतिदेवों द्वारा कामकाज संभालना लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। यह न केवल महिलाओं के अधिकारों का हनन है बल्कि समाज में उनकी वास्तविक भागीदारी को भी कमजोर कर रहा है। जरूरत इस बात की है कि महिलाएं खुद आगे आएं, अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाएं और प्रशासन ऐसे मामलों में सख्ती दिखाए। तभी महिला सशक्तिकरण और लोकतंत्र की असली भावना साकार हो सकेगी।